भारत का अनकहा इतिहास: किसने जीता था झेलम का युद्ध, सिकंदर ने या फिर राजा पुरू ने?
विश्व का सबसे महान योद्धा, ना भूतो न भविष्यति, जब सिकंदर जिसे यूनानी इतिहासकार सिकंदर द ग्रेट कह कर संबोधित कहते हैं अपने दिग्विजय अभियान पर निकला था, तब अनेकों साम्राज्य उसके समक्ष नतमस्तक हो गए, कुछ ने आत्मसमर्पण कर दिया और जिन्होंने उससे युद्ध करने का दुस्साहस किया, वे अपनी सेना समेत मारे गए। अंततः सिकंदर ने अपने नेत्र भारत की ओर उठाए। हाडेप्सास यानि झेलम का युद्ध हुआ और परिणाम वही था। सिकंदर ने राजा पुरू को पराजित किया परंतु फिर हुआ उसका हृदय परिवर्तन। महान और भी महान हो गया।
334 BCE का कालखंड था, सिकंदर फारस यानि की वर्तमान ईरान को हरा चुका था। और अब उसका ध्यान भारतभूमि की ओर था। यह वो काल था जब भारत आक्रांताओं के श्मशान के रूप में प्रचलित था। भारत की अकूत सम्पदा तो सबको भाती थी परंतु भारत को पराजित करना, ऐरावत पर आरूढ़ नमूचीहंता इंद्र को पराजित के सदृश दुष्कर था।
फारसियों ने सिकंदर को इस बात से विदित करवाया कि उनका महानतम राजा साइरस जिसने लगभग सम्पूर्ण विश्व पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था वह दो सदी पहले भारत में वधित हुआ था। असीरियन रानी सेमीरमिस ने भारत पर 4 लाख अश्वारोही योद्धाओं के साथ आक्रमण किया था और 20 अश्वारोही योद्धाओं के साथ लौटी थी, बाकी भारतभूमि के वीर योद्धाओं के खडगों द्वारा यमपुरी भेज दिये गए थे।
परंतु सिकंदर निर्भीक योद्धा था। भारत-विजय उसका स्वप्न था। उसने भारत पर अपनी पूरी शक्ति के साथ आक्रमण कर दिया। यह उसके जीवन की एक बड़ी विफलता सिद्ध होने वाली थी।
युद्ध से पहले चलते हैं युद्ध के परिणाम पर, या कहें तो युद्ध के परिणाम की उस कथा पर जो यूनानी इतिहासकारों ने बढ़ चढ़ कर सुनायी है। यूनानी इतिहासकारों के अनुसार, सिकंदर युद्ध तो जीत गया परंतु वह अपने शत्रु पुरू की वीरता से अत्यंत प्रभावित हुआ। वह इतना प्रभावित हुआ की उसने पुरू से जीता हुआ राज्य पुनः उसे लौटा दिया। यही नहीं उसने पुरू को तक्षशिला नरेश आम्भिकुमार का राज्य भी दे दिया। पुरू के साथ हुए युद्ध में आम्भिकुमार सिकंदर की तरफ से लड़ा था।
थोड़ा विचित्र नहीं है? सिकंदर जो एक क्रूर आक्रांता था, जो युद्ध जीतने के लिए किसी भी प्रकार का छल, कपट और प्रपंच कर सकता था अनायास ही वो इतने विशाल हृदय वाला व्यक्ति कैसे बन गया? जिस राजा की सेना ने मैसेडोनिया की सेना को छत-विछत कर डाला था, उसे पुरस्कार देना तर्क संगत तो नहीं लगता? और अगर वास्तविकता में सिकंदर का हृदय इतना विशाल भी हो भी गया हो, फिर भी आम्भिकुमार का राज्य पुरू को देने का तो कोई औचित्य ही नहीं बनता?
इसका मात्र एक ही कारण हो सकता है? यूनानी इतिहासकार सदा से मिथ्या बोलते आयें है। सिकंदर और पुरू का युद्ध तो अवश्य हुआ था परंतु पराजय पुरू की नहीं सिकंदर की हुई थी। महान सिकंदर नहीं पुरू था।
अब आते हैं सिकंदर के एक लघु जीवन परिचय पर:
महान दार्शनिक और सिकंदर के गुरु अरस्तु ने एक बार भविष्यवाणी की थी कि सिकंदर का जन्म विश्वविजेता बनने के लिए हुआ है, परंतु सिकंदर के विश्वविजेता बनने के पथ में सबसे पहले आता था का मैसेडोनिया का राजसिंहासन । उस राजसिंहासन से पहले आते थे उसके सौतेले व चचेरे भाई। पिता की मृत्यु होते ही सिकंदर ने अपने में कुल में हत्याओं की मानो एक वृष्टि सी कर दी। एक के बाद एक अपने सौतेले व चचेरे भाइयों की हत्या करने के पश्चात सिकंदर मेसेडोनिया के सिंहासन पर आसीन हुआ। गृहयुद्ध का विजेता बनने के उपरांत सिकंदर विश्व विजय को प्रस्थान कर गया। निकटवारती राज्यों के विद्रोहियों का दमन करके उसने इरान पर आक्रमण किया, इरान विजित कर सिकंदर ने गोर्दियास और उसके पश्चात बेबीलोन को जीत लिया। उसके बाद वह अफगानिस्तान को जीतता हुआ सिन्धु नदी तक पहुँच गया। सिन्धु पार तक्षशिला था, जहाँ का राजा था आम्भीकुमार, और अम्भिकुमार के निकट झेलम पार फैला था महाराज पुरू का विशाल साम्राज्य। अम्भिकुमार स्वभाव से लोभी और निष्ठाहीन था और उसका महाराज पुरु से पुराना बैर था, सिकंदर को अपने राज्य तक आया देख उसने उससे हाथ मिलाना ही उचित समझा।
अब आते हैं युद्ध पर:
राजा पुरु के शत्रु आम्भी की सेना के साथ सिकंदर ने झेलम पार की। राजा पुरू को सिकंदर की सेना की गतिविधियों और अम्भिकुमार के षड्यंत्र की पूरी जानकारी थी। यूनानी इतिहासकार बताते हैं की अगर सिकंदर झेलम नहीं पार कर पाता, तो निःसन्देह पुरू ही विजेता होते परंतु पुरू ने सिकंदर की सेना को झेलम क्यों पार करने दिया उसके पीछे एक बहुत ही रोचक कारण है। राजा पुरू को झेलम नदी के प्रवाह, फैलाव और संकीर्णता की सम्पूर्ण जानकारी थी। उन्हें यह भी ज्ञात था कि नदी कब पार करने के योग्य है और कब नहीं। सिकंदर की सेना ने नदी पार करने का जो समय चुना था वो अत्यंत मूर्खतापूर्ण निर्णय था। नदी पार करने के थोड़े समय पूर्व ही नदी में बाढ़ आ गयी और सिकंदर की बहुत सी सेना उसके चपेट में आ गई।
और जब सिकंदर पुरू के राज्य में पहुंचा तो ऐरावत पर बैठे देवराज इंद्र की तरह पुरू स्वयं उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। महाराज पुरू के पास मद बहाते गजराजों की एक विशाल सेना थी जिसे देख कर मैसेडोनिया के अश्वारोही आतंकित हो उठे। जब राजा पुरू की गजसेना यूनानियों का संहार करने लगी तो सिकंदर भय से आक्रांत हो उठा और उसके सैनिक आतंकित हो उठे। गजसेना के अलावा पुरू की सेना में प्रशिक्षित शूल-सेना की टुकड़ी भी थी जो सात सात फुट के पैने भालों का कुशलपूर्वक संधान करने में दक्ष थे। एक एक भाले से तीन तीन योद्धा मर कर गिरने लगे,ऐसा प्रतीत होता रहा था मानों साक्षात देवाधिदेव भगवान शंकर अपना भयंकर त्रिशूल लेकर युद्ध करने को युद्धभूमि में उतर आए हों।
सिकंदर की सेना के सारे बड़े योद्धा हिन्दू सेना के हाथों मारे गए। सेना के पाँव उखड़ता देख सिकंदर अंगरक्षक एवं अंत: प्रतिरक्षा टुकड़ी को लेकर रणक्षेत्र में घुस गया। राजा पुरु के भाई अमर ने सिकंदर का संधान कर के एक भयंकर भाला फेंका, जिससे सिकंदर का घोड़ा बुकिफाइलस वहीं मर गया और सिकंदर भूमि पर लोटने लगा। विश्वविजेता बनने चला सिकंदर भूमि में लोट रहा था, उसके चारों ओर हाथियों पर सवार पुरू की सेना थी। ऐसे दृश्य की यूनानियों ने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। राजा पुरू अपनी खड्ग लेकर सिकंदर के पास आए, अगर वो कोई यवन या गैरहिन्दु शासक होते तो पल भर में सिकंदर को वहीं मार डाला होता परंतु क्षत्रिय धर्म का अक्षरशः पालन करने वाला राजा पुरू ने निःशस्त्र सिकंदर को क्षमा दान देते हुए जीवित छोड़ दिया।
अब हम आते हैं उन साक्ष्यों की ओर जो इस बात का सत्यापन करते हैं की सिकंदर ने पुरू को नहीं वरन पुरू ने सिकंदर को पराजित किया था।
पहला साक्ष्य – जब हदैप्सेस अर्थात झेलम का युद्ध समाप्त हुआ तब यूनानी सेना ने एक आनंदोत्सव का आयोजन किया था जहां वे जम कर नाचे गाये थे। यूनानी इतिहासकार भी यह मानते हैं की झेलम का युद्ध सिकंदर के जीवन का सबसे भीषण युद्ध था जहां उसकी अधिकतर सेना मारी गई थी। इसके विपरीत ईरान और इससस के युद्ध में सिकंदर की विजय सम्पूर्ण भी थी और सरल भी। परंतु ईरान और इससस विजय के पश्चात यूनानी सेना ने कोई आनंदोत्सव नहीं किया था। इसका सीधा साधा अर्थ यह है कि जो सेना जीवित बच गई थी वो अत्यंत प्रसन्न थी और इसलिए उत्सव माना रही थी। ये मेरी कल्पना नहीं बल्कि यूनिवरसिटि ऑफ ह्यूस्टन के प्रोफेसर फ्रैंक ली हॉल्ट द्वारा लिखित किताब “Alexander the Great and the Mystery of the Elephant Medallions” में वर्णित है।
दूसरा साक्ष्य जिसका वर्णन हम पहले ही कर चुके हैं – अगर पुरू पराजित हुए तो उनका सिकंदर ने उनका सम्मान क्यों किया, उनका राज्य क्यों लौटा दिया? ये सिकंदर के स्वभाव के सर्वथा विपरीत आचरण था, और इसका सीधा अर्थ यही था कि पुरू पराजित नहीं वरन विजेता थे।
अब आते हैं तीसरे साक्ष्य पर, पुरू से युद्ध के उपरांत सिकंदर सेना समेत तुरंत भारत छोड़ कर भाग खड़ा हुआ, यूनानी इतिहासकारों की माने तो वह और उसकी सेना युद्ध से और युद्ध में थक गया था। ये विश्वविजेता के लक्षण तो नहीं प्रतीत होते। सच्चाई यह है कि उसकी सेना आहत और निरुत्साह थी और विरोध के कगार पर थी।
रशिया के महान सेना-नायक मार्शल ग्रेगरी झुकोव ने भी कहा था की माइसेडोनिया की सेना की भारत में लज्जाजनक पराजय हुई थी।
इन साक्ष्यों, संकेतों और कथनों से साफ है की विश्वविजेता बनने का स्वप्न देख रहा सिकंदर भारत में बुरी तरह पराजित हुआ। राजा पुरू और उनकी सेना ने ना केवल उसे पराजित किया बल्कि आगे युद्ध लड़ने का मनोबल भी तोड़ दिया।
परंतु विडम्बना यह है कि पराजित होने के पश्चात भी इतिहास का नायक बना सिकंदर, महान की उपाधि मिली सिकंदर को। सिकंदर के भारतविजय की कथा इस बात का साक्ष्य है कि मिथ्या बारंबार बोलने पर सत्य प्रतीत होने लगती है। अपने योद्धा का गुणगान करने वाले यूनानी इतिहासकारों की सिकंदर के महिमामंडन की मंशा तो हमे समझ आती है परंतु भारतीय इतिहासकारों ने क्यों कभी इस युद्ध के गूढ रहस्यों को जानने का प्रयत्न नहीं किया, क्यों उन्होंने इस मिथ्या को इतिहास बनने दिया, क्यों उन्होंने राजा पुरू की शौर्य गाथा को इतिहास के एक अध्याय के एक परिच्छेद की एक पंक्ति में सीमित कर दिया। प्रश्न कई हैं और उत्तर एक भी नहीं, परंतु आशा करते हैं कि इस अंक को देखने के बाद आप सिकंदर और पुरू को अलग दृष्टि से देखेंगे।
यह थी कहानी एक सनकी के विश्वविजय अभियान की, कहानी एक विश्वासघाती के विश्वासघात की, कहानी सिकंदर के मानमर्दन की, कहानी राजा पुरू के अदम्य शौर्य की, कहानी भारत के स्वर्णिम इतिहास की और कहानी एक मिथ्या की जिसे सब ने सत्य मान लिया है।
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